29 AUGUST DINVISHESH


*29 ऑगस्ट दिनविशेष 2022 !*
🧩 *सोमवार* 🧩


💥 *राष्ट्रीय क्रिडा दिन*
         
         🌍 *घडामोडी* 🌍    
 
👉 *2004 - मायकेल शुमाकर यांनी पाचव्यादा फार्मुला वन डाईव्हर्स चॅम्पियनशिप जिंकले*         
👉 *1947 - डाॅ बाबासाहेब आंबेडकर घटना समिती चे अध्यक्ष झाले*

            🔥🔥🔥🔥
*विदर्भ प्राथमिक शिक्षक संघ नागपूर* 
(प्राथमिक, माध्यमिक व उच्च माध्यमिक शिक्षक संघ नागपूर विभाग नागपूर) 
9860214288, 9423640394
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👉 *1958 - मायकेल जॅक्सन  - जगप्रसिध्द अमेरिकन पाॅप गायक, गीतलेखक, संगीतकार, निर्माता आणि अभिनेता  यांचा जन्म*
👉 *1959 - दक्षिण भारतातील चिञपट अभिनेता अक्किनेणी नागार्जुन  यांचा जन्म*

🌍 *मृत्यू*

👉 *2008 - जयश्री गडकर  - सुप्रसिद्ध भारतीय हिन्दी आणि मराठी चिञपट अभिनेञी  यांचे निधन*
👉 *2007 - बनारसी दास गुप्ता  ब्रिटिश राजवटीतील स्वातंत्र्य सेनानी आणि हरियाणा येथील चौथे मुख्यमंत्री  यांचे  निधन*
 
🙏 *मिलिंद विठ्ठलराव वानखेडे*🙏
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*GENERAL KNOWLEDGE*
◆ Name the largest mammal?
Ans. : *Blue Whale*

  *SPECIAL INTRODUCTION*
[Indian World Recordist]

*Major Dhyan Chand*
[ Indian hockey player ]

Dhyan Chand, (Born : August 29, 1905, Allahabad, India - Died : December 3, 1979, Delhi), Indian field hockey player who was considered to be one of the greatest players of all time.

Chand is most remembered for his goal-scoring feats and for his three Olympic gold medals (1928, 1932, and 1936) in field hockey, while India was dominant in the sport. He joined the Indian army in 1922 and came to prominence when he toured New Zealand with the army team in 1926. After playing in the 1928 and 1932 Olympic Games, Chand captained the Indian team at the 1936 Games in Berlin, scoring three goals in the 8–1 defeat of Germany in the final match. During India’s victorious world tour of 1932, he scored 133 goals. Known as “the Wizard” for his superb ball control, Chand played his final international match in 1948, having scored more than 400 goals during his international career.

In 1956 he retired from the army with the rank of major. His son, Ashok Kumar Singh, was a member of India’s Olympic field hockey teams in the 1970s and scored the winning goal in the 1975 World Cup championship.

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               *PASAYDAN*
                 *SILENCE*
*All students will keep silence for two minutes.*
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💥   *बोधकथा* .  💥                                                                                                   
  🛑 *प्रामाणिक मुलगा*🛑      
*एक मुलगा खूपच सरळमार्गी आणि प्रामाणिक होता. त्‍याच्‍यावर त्‍याच्‍या आईवडीलांनी चांगले संस्‍कार केले होते व त्‍या संस्‍कारांना अनुसरुन तो वागत होता. एकदा काही निमित्ताने तो शेजा-याच्‍या घरी गेला. शेजारी कुठेतरी बाहेर गेला होता. शेजा-याच्‍या नोकराने मुलाला बसायला सांगितले आणि नोकर निघून गेला. मुलगा जिथे बसला होता तिथे जवळ एका टोपलीत उत्तम दर्जाची सफरचंदे ठेवली होती. त्‍या मुलालाही सफरचंद खूप आवडत असत पण त्‍याने त्‍यांना हात लावला नाही. तो शेजा-याची वाट पाहात बसला होता. ब-याच वेळाने शेजारी घरी परतला त्‍याने पाहिले की मुलगा बसला आहे व त्‍याच्‍याशेजारी सफरचंदे असूनही तो त्‍यांना हातसुद्धा लावत नसे मुलाला सफरचंद खूप आवडतात हे शेजा-याला माहित होते. शेजारी येताच मुलाने उठून नमस्‍कार केला, शेजा-याने त्‍याला जवळ घेतले व विचारले,''तुला सफरचंद तर खूप आवडतात ना, मग तरीसुद्धा एकही सफरचंद उचलून का खाल्‍ले नाहीस'' मुलगा म्‍हणाला,'' इथेच कोणीच नव्‍हते, मी दोन तीन सफरचंदे जरी उचलून घेतली असती तरी कुणालाच कळले नसते, कोणीच मला पाहात नव्‍हते पण कोणी पाहत नव्‍हते पण मी स्‍वत:ला ते पाहात होतो. परंतु मी स्‍वत:ला फसवू शकत नाही.'' शेजा-यास त्‍याच्‍या या बोलण्‍याचा आनंद वाटला. त्‍याने त्‍याला शाबासकी दिली व म्‍हणाला,'' आपण करतो ते आपला आत्‍मा पाहात असतो, आपण आपल्‍याला कधीच फसवू शकत नाही. दुस-याला लाख फसवू पण स्‍वत:शी खोटे बोलणे फार अवघड आहे. सर्वांनीच तुझ्यासारखे वर्तन केल्‍यास जग सुखी होईल.            ▬▬▬▬🇨🇮🇨🇮🇨🇮▬▬▬▬                                                  *ठळक घडामोडी*
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◆ *शाळांमध्ये आता क्रीडा तास बंधनकारक असणार, राज्य सरकारची घोषणा..राज्यातील शाळांमध्ये क्रीडा तास सुरू*
◆ *येणारं वर्ष बाजरी वर्ष! मन की बात' कार्यक्रमाद्वारे पंतप्रधान नरेंद्र मोदींची घोषणा,  शेतकऱ्यांना तृणधान्यांची अधिकाधिक लागवड करण्याचे आवाहन*
◆ *गणेशोत्सवाआधीच्या शेवटच्या रविवारी सार्वजनिक मंडळाच्या मूर्ती मंडपात नेण्याची लगबग, मूर्तीकार मूर्तींवर फिरवतायत अखेरचा हात तर विविध शहरातील बाजारपेठाही सजल्या*
◆ *आशिया चषक टी- 20 स्पर्धेत आज भारत-पाकिस्तानचा महामुकाबला, टी-20  विश्वचषकातील पराभवाचा वचपा काढण्यासाठी टीम इंडिया सज्ज,  दोन्ही संघांना दुखापतीचा फटका  भारताचा विजय*
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*मिलिंद वानखेडे*
*मुख्याध्यापक*
*प्रकाश हायस्कूल व ज्युनिअर कॉलेज  कान्द्री-माईन*
*9860214288* 
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*🇮🇳आझादी का अमृत महोत्सव 🇮🇳*
       🇮🇳 *गाथा बलिदानाची* 🇮🇳
                 ▬ ❚❂❚❂❚ ▬                  संकलन : सुनिल हटवार ब्रम्हपुरी,          
             चंद्रपूर 9403183828                                                      
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       *पद्मभूषण मेजर ध्यान चन्द*  
     (फौजी एवम् हाॕकी के जादूगर)
पूरा नाम : मेजर ध्यानचन्द सिंह
*जन्म : 29 अगस्त 1905*
       ( इलाहाबाद )
*मृत्यु : 3 दिसंबर 1979*
       ( नई दिल्ली )
पिता : समेश्वर दत्त सिंह 
कर्म भूमि : भारत
खेल-क्षेत्र : हॉकी
पुरस्कार : उपाधि पद्म भूषण (1956)
प्रसिद्धि : हॉकी का जादूगर
विशेष योगदान : ओलम्पिक खेलों में भारत को लगातार तीन स्वर्ण पदक (1928, 1932 और 1936) दिलाने में मेजर ध्यानचन्द का अहम योगदान है।
नागरिकता : भारतीय
अन्य जानकारी : ध्यानचन्द के जन्मदिन (29 अगस्त) को भारत का *'राष्ट्रीय खेल दिवस'* घोषित किया गया है।
           मेजर ध्यान चन्द भारतीय हॉकी खिलाड़ी थे, जिनकी गिनती श्रेष्ठतम कालजयी खिलाड़ियों में होती है। मानना होगा कि हॉकी के खेल में ध्यान चन्द ने लोकप्रियता का जो कीर्त्तिमान स्थापित किया, उसके आसपास भी आज तक दुनिया का कोई खिलाड़ी नहीं पहुँच सका। मेजर ध्यान चन्द रात में भी बहुत अभ्यास करते थे, इसलिए उन्हें उनके साथी खिलाड़ियों द्वारा उपनाम 'चांद' दिया गया। दरअसल, उनका यह अभ्यास चांद के निकल आने पर शुरू होता था। 1979 में दादा ध्यानचंद की कोमा में जाने के बाद मौत हुई, लेकिन जब तक वे होश में रहे, भारतीय हॉकी के प्रति चिंतित रहे।

हॉकी में ध्यानचंद सा खिलाड़ी न तो हुआ है और न होगा। वह जितने बडे़ खिलाड़ी थे उतने ही नेकदिल इंसान थे। हॉकी के इस जादूगर का असली नाम ध्यानसिंह था, लेकिन जब फ़ौज में उन्होंने बाले तिवारी के मार्गदर्शन में हॉकी संभाली तो सभी स्नेह से उन्हें ध्यानचंद कहने लगे और इस तरह उनका नाम ही ध्यानचंद पड़ गया।                                             
💁🏻‍♂️ *जीवन परिचय*
हॉकी के जादूगर दादा ध्यानचंद का जन्म प्रयाग (इलाहाबाद) के एक साधारण राजपूत परिवार में 29 अगस्त, 1905 को हुआ। कालांतर में उनका परिवार इलाहाबाद से झांसी आ गया। उनके बाल्य-जीवन में खिलाड़ीपन के कोई विशेष लक्षण दिखाई नहीं देते थे। इसलिए कहा जा सकता है कि हॉकी के खेल की प्रतिभा जन्मजात नहीं थी, बल्कि उन्होंने सतत साधना, अभ्यास, लगन, संघर्ष और संकल्प के सहारे यह प्रतिष्ठा अर्जित की थी।

👦🏻 *बचपन*
साधारण शिक्षा प्राप्त करने के बाद 16 वर्ष की अवस्था में सेना में एक साधारण सिपाही की हैसियत से भरती हो गए। जब 'फर्स्ट ब्राह्मण रेजीमेंट' में भरती हुए उस समय तक उनके मन में हॉकी के प्रति कोई विशेष दिलचस्पी या रुचि नहीं थी। ध्यानचंद को हॉकी खेलने के लिए प्रेरित करने का श्रेय रेजीमेंट के एक सूबेदार मेजर तिवारी को है। मेजर तिवारी स्वंय भी हॉकी प्रेमी और खिलाड़ी थे। उनकी देख-रेख में ध्यानचंद हॉकी खेलने लगे और देखते ही देखते वह दुनिया के एक महान् खिलाड़ी बन गए।

🏑 *खेल परिचय*
ध्यानचंद को फुटबॉल में पेले और क्रिकेट में ब्रैडमैन के समतुल्य माना जाता है। गेंद इस क़दर उनकी स्टिक से चिपकी रहती कि प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी को अक्सर आशंका होती कि वह जादुई स्टिक से खेल रहे हैं। यहाँ तक हॉलैंड में उनकी हॉकी स्टिक में चुंबक होने की आशंका में उनकी स्टिक तोड़ कर देखी गई। जापान में ध्यानचंद की हॉकी स्टिक से जिस तरह गेंद चिपकी रहती थी उसे देख कर उनकी हॉकी स्टिक में गोंद लगे होने की बात कही गई। ध्यानचंद की हॉकी की कलाकारी के जितने किस्से हैं उतने शायद ही दुनिया के किसी अन्य खिलाड़ी के बाबत सुने गए हों। उनकी हॉकी की कलाकारी देखकर हॉकी के मुरीद तो वाह-वाह कह ही उठते थे बल्कि प्रतिद्वंद्वी टीम के खिलाड़ी भी अपनी सुधबुध खोकर उनकी कलाकारी को देखने में मशगूल हो जाते थे। उनकी कलाकारी से मोहित होकर ही जर्मनी के रुडोल्फ हिटलर सरीखे जिद्दी सम्राट ने उन्हें जर्मनी के लिए खेलने की पेशकश कर दी थी। लेकिन ध्यानचंद ने हमेशा भारत के लिए खेलना ही सबसे बड़ा गौरव समझा। वियना में ध्यानचंद की चार हाथ में चार हॉकी स्टिक लिए एक मूर्ति लगाई और दिखाया कि ध्यानचंद कितने जबर्दस्त खिलाड़ी थे। सुनने में ये सभी घटनाएं भले अतिशयोक्तिपूर्ण लगे, लेकिन ये सभी बातें कभी हकीकत रही हैं।

🥇🥈🥉  *मेजर ध्यानचंद सिंह ने भारत को दिलाये तीन स्वर्ण पदक*
ध्यानचंद ने तीन ओलिम्पिक खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व किया तथा तीनों बार देश को स्वर्ण पदक दिलाया। आँकड़ों से भी पता चलता है कि वह वास्तव में हॉकी के जादूगर थे। भारत ने 1932 में 37 मैच में 338 गोल किए, जिसमें 133 गोल ध्यानचंद ने किए थे। दूसरे विश्व युद्ध से पहले ध्यानचंद ने 1928 (एम्सटर्डम), 1932 (लॉस एंजिल्स) और 1936 (बर्लिन) में लगातार तीन ओलिंपिक में भारत को हॉकी में गोल्ड मेडल दिलाए। दूसरा विश्व युद्ध न हुआ होता तो वह छह ओलिंपिक में शिरकत करने वाले दुनिया के संभवत: पहले खिलाड़ी होते ही और इस बात में शक की क़तई गुंजाइश नहीं इन सभी ओलिंपिक का गोल्ड मेडल भी भारत के ही नाम होता!

🏟️ *खेल भावना*
1933 में एक बार वह रावलपिण्डी में मैच खेलने गए। इस घटना का उल्लेख यहाँ इसलिए किया जा रहा है कि आज हॉकी के खेल में खिलाड़ियों में अनुशासनहीनता की भावना बढ़ती जा रही है और खेल के मैदान में खिलाड़ियों के बीच काफ़ी तेज़ी आ जाती है। 14 पंजाब रेजिमेंट (जिसमें ध्यानचंद भी सम्मिलित थे) और सैपर्स एण्ड माइनर्स टीम के बीच मैच खेला जा रहा था। ध्यानचंद उस समय ख्याति की चरम सीमा पर पहुँच चुके थे। उन्होंने अपने शानदार खेल से विरोधियों की रक्षापंक्ति को छिन्न-भिन्न कर दिया और दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया। इस पर विरोधी टीम का सेंटर-हाफ अपना संतुलन खो बैठा और असावधानी में उसके हाथों ध्यानचंद की नाक पर चोट लग गई। खेल तुरंत रोक दिया गया। प्राथमिक चिकित्सा के बाद ध्यानचंद अपनी नाक पर पट्टी बंधवाकर मैदान में लौटे। उन्होंने चोट मारने वाले प्रतिद्वंदी की पीठ थपथपाई और मुस्कराकर कहा-"सावधानी से खेलो ताकि मुझे दोबारा चोट न लगे।" उसके बाद ध्यानचंद प्रतिशोध पर उतर आए। उनका प्रतिशोध कितना आर्दश है, इसकी बस कल्पना ही की जा सकती है। उन्होंने एक साथ 6 गोल कर दिए। ये सचमुच एक महान् खिलाड़ी का गुण है। इससे खेल-खिलाड़ी का स्तर और प्रतिष्ठा ऊँची होती है।

🏅 *ओलम्पिक खेल* 🏅

♦️ *एम्सटर्डम (1928)*
1928 में एम्सटर्डम ओलम्पिक खेलों में पहली बार भारतीय टीम ने भाग लिया। एम्स्टर्डम में खेलने से पहले भारतीय टीम ने इंगलैंड में 11 मैच खेले और वहाँ ध्यानचंद को विशेष सफलता प्राप्त हुई। एम्स्टर्डम में भारतीय टीम पहले सभी मुकाबले जीत गई। भारत ने आस्ट्रेलिया को 6-0 से, बेल्जियम को 9-0 से, डेनमार्क को 6-0 से, स्विटज़लैंड को 6-0 से हराया और इस प्रकार भारतीय टीम फाइनल में पहुँच गई। फाइनल में भारत और हालैंड का मुकाबला था। फाइनल मैच में भारत ने हालैंड को 3-0 से हरा दिया। इसमें दो गोल ध्यानचंद ने किए।

♦️ *लास एंजिल्स (1932)*
1932 में लास एंजिल्स में हुई ओलम्पिक प्रतियोगिताओं में भी ध्यानचंद को टीम में शामिल कर लिया गया। उस समय सेंटर फॉरवर्ड के रूप में काफ़ी सफलता और शोहरत प्राप्त कर चुके थे। तब सेना में वह 'लैंस-नायक' के बाद नायक हो गये थे। इस दौरे के दौरान भारत ने काफ़ी मैच खेले। इस सारी यात्रा में ध्यानचंद ने 262 में से 101 गोल स्वयं किए। निर्णायक मैच में भारत ने अमेरिका को 24-1 से हराया था। तब एक अमेरिका समाचार पत्र ने लिखा था कि भारतीय हॉकी टीम तो पूर्व से आया तूफ़ान थी। उसने अपने वेग से अमेरिकी टीम के ग्यारह खिलाड़ियों को कुचल दिया।

♦️ *बर्लिन (1936)*
1936 के बर्लिन ओलपिक खेलों में ध्यानचंद को भारतीय टीम का कप्तान चुना गया। इस पर उन्होंने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा- "मुझे ज़रा भी आशा नहीं थी कि मैं कप्तान चुना जाऊँगा" खैर, उन्होंने अपने इस दायित्व को बड़ी ईमानदारी के साथ निभाया। अपने जीवन का अविस्मरणिय संस्मरण सुनाते हुए वह कहते हैं कि 17 जुलाई के दिन जर्मन टीम के साथ हमारे अभ्यास के लिए एक प्रदर्शनी मैच का आयोजन हुआ। यह मैच बर्लिन में खेला गया। हम इसमें चार के बदले एक गोल से हार गए। इस हार से मुझे जो धक्का लगा उसे मैं अपने जीते-जी नहीं भुला सकता। जर्मनी की टीम की प्रगति देखकर हम सब आश्चर्यचकित रह गए और हमारे कुछ साथियों को तो भोजन भी अच्छा नहीं लगा। बहुत-से साथियों को तो रात नींद नहीं आई।

5 अगस्त के दिन भारत का हंगरी के साथ ओलम्पिक का पहला मुकाबला हुआ, जिसमें भारतीय टीम ने हंगरी को चार गोलों से हरा दिया। दूसरे मैच में, जो कि 7 अगस्त को खेला गया, भारतीय टीम ने जापान को 9-0 से हराया और उसके बाद 12 अगस्त को फ्रांस को 10 गोलों से हराया। 15 अगस्त के दिन भारत और जर्मन की टीमों के बीच फाइनल मुकाबला था। यद्यपि यह मुकाबला 14 अगस्त को खेला जाने वाला था पर उस दिन इतनी बारिश हुई कि मैदान में पानी भर गया और खेल को एक दिन के लिए स्थगित कर दिया गया। अभ्यास के दौरान जर्मनी की टीम ने भारत को हराया था, यह बात सभी के मन में बुरी तरह घर कर गई थी। फिर गीले मैदान और प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण हमारे खिलाड़ी और भी निराश हो गए थे। तभी भारतीय टीम के मैनेजर पंकज गुप्ता को एक युक्ति सूझी। वह खिलाड़ियों को ड्रेसिंग रूम में ले गए और सहसा उन्होंने तिरंगा झण्डा हमारे सामने रखा और कहा कि इसकी लाज अब तुम्हारे हाथ है। सभी खिलाड़ियों ने श्रद्धापूर्वक तिरंगे को सलाम किया और वीर सैनिक की तरह मैदान में उतर पड़े। भारतीय खिलाड़ी जमकर खेले और जर्मन की टीम को 4-1 से हरा दिया। उस दिन सचमुच तिरंगे की लाज रह गई। उस समय कौन जानता था कि 15 अगस्त को ही भारत का स्वतन्त्रता दिवस बनेगा।

🙅🏻‍♂️ *हॉकी का जादूगर*
कहा जाता है कि मैच के दौरान गेंद हर समय ध्यानचंद की स्टिक के साथ ही चिपकी रहती। यह देखकर दर्शक आश्चर्यचकित रह गए, लेकिन कुछ अधिकारियों को बीच में संदेह होने लगा कि कहीं ध्यानचंद की स्टिक में कोई ऐसी वस्तु तो नहीं लगी है, जो बराबर गेंद को अपनी ओर खींचे जाती है। बात बढ़ गई और शंका-समाधान आवश्यक समझा गया। सैनिक को दूसरी स्टिक से खेलने को कहा गया, लेकिन जब दूसरी स्टिक से भी ध्यानचंद ने दनादन गोलों का तांता बांधकर समा बांध दिया तो जर्मन अधिकारियों को विश्वास हो गया कि जादू स्टिक का नहीं उनकी लोचदार और सशक्त कलाइयों का है। वहाँ के दर्शकों ने तभी ध्यानचंद को 'हॉकी का जादूगर' कहना शुरू कर दिया। 1936 के ओलम्पिक खेलों में भारतीय हॉकी टीम ने कुल मिलाकर 38 गोल किए जिनमें से 11 गोल ध्यानचंद ने ही किए।
1936 के बर्लिन ओलम्पिक खिलों के बाद द्वितीय विश्व-युद्ध के कारण 1946 और 1944 के ओलम्पिक खेलों का आयोजन नहीं हो सका। द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद ध्यानचंद ने हॉकी से सन्न्यास ले लिया, लेकिन हॉकी तो उनकी जीवनसंगिनी थी। उन्होंने नवयुवकों को गुरु-मंत्र सिखाने शुरू कर दिए। काफ़ी समय तक वह राष्ट्रीय खेलकूद संस्थान (पटियाला) में भारतीय टीमों को प्रशिक्षित करते रहे।

👨🏻‍✈️ *सेना में पदोन्नति*
केवल हॉकी के खेल के कारण ही सेना में उनकी पदोन्नति होती गई। 1938 में उन्हें 'वायसराय का कमीशन' मिला और वे जमादार बन गए। उसके बाद एक के बाद एक दूसरे सूबेदार, लेफ्टीनेंट और कैप्टन बनते चले गए। बाद में उन्हें मेजर बना दिया गया।

🏑 *खेल जीवन*
वह 1922 में भारतीय सेना में शामिल हुए और 1926 में सेना की टीम के साथ न्यूज़ीलैंड के दौरे पर गए। 1928 और 1932 के ओलंपिक खेलों में खेलने के बाद 1936 में बर्लिन ओलम्पिक में ध्यानचंद ने भारतीय टीम का नेतृत्व किया और स्वयं छ्ह गोल दाग़कर फ़ाइनल में जर्मनी को पराजित किया। 1932 में भारत के विश्वविजयी दौरे में उन्होंने कुल 133 गोल किए। ध्यांनचंद ने अपना अंतिम अंतर्राष्ट्रीय मैच 1948 में खेला। अंतर्राष्ट्रीय मैचों में उन्होंने 400 से अधिक गोल किए।

🔮 *करिश्माई खिलाड़ी*

मेजर ध्यानचंद सिंह
1948 और 1952 में भारत के लिए खेलने वाले नंदी सिंह का कहना है कि ध्यानचंद के खेल की ख़ासियत थी कि वो गेंद को अपने पास ज़्यादा देर तक नहीं रखते थे। उनके पास बहुत नपे-तुले होते थे और वो किसी भी कोण से गोल कर सकते थे। 1947 के पूर्वी अफ़्रीका के दौरे के दौरान एक मैच में ध्यानचंद ने केडी सिंह बाबू को एक ज़बरदस्त पास दिया और उनकी तरफ़ पीठ कर अपने ही गोल की तरफ चलने लगे। बाद में बाबू ने उनकी इस अजीब हरकत का कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि अगर तुम उस पास पर भी गोल नहीं मार पाते तो तुम्हें भारतीय टीम में बने रहने का कोई हक़ नहीं है। उनके पुत्र ओलंपियन अशोक कुमार भी बताते हैं कि 50 वर्ष की उम्र में भी अभ्यास के दौरान वो डी (D) के अंदर से दस में दस शॉट भारतीय गोलकीपर को छकाते हुए मार सकते थे। ओलंपियन केशवदत्त कहते हैं कि ध्यानचंद हॉकी के मैदान को इस तरह देखते थे जैसे शतरंज का खिलाड़ी चेस बोर्ड को देखता है। उनको हमेशा मालूम रहता था कि उनकी टीम का हर खिलाड़ी कहाँ है और अगर उनकी आँख पर पट्टी भी बाँध दी जाए, तब भी उनका पास बिल्कुल सही जगह पर पहुँचता था। 1968 के मैक्सिको ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम के कप्तान रहे गुरुबक्श सिंह भी याद करते हुए कहते है कि 1959 में जब ध्यानचंद 54 वर्ष के थे, तब भी भारतीय टीम का कोई सदस्य बुली में उनसे गेंद नहीं छीन सकता था।                                     🌀 *हिटलर और ब्रैडमैन भी क़ायल*
ध्यानचंद ने अपनी करिश्माई हॉकी से जर्मन तानाशाह हिटलर ही नहीं बल्कि महान् क्रिकेटर डॉन ब्रैडमैन को भी अपना क़ायल बना दिया था। यह भी संयोग है कि खेल जगत् की इन दोनों महान् हस्तियों का जन्म दो दिन के अंदर पर पड़ता है। दुनिया ने 27 अगस्त को ब्रैडमैन की जन्मशती मनाई तो 29 अगस्त को वह ध्यानचंद को नमन करने के लिए तैयार है, जिसे भारत में खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है। ब्रैडमैन हाकी के जादूगर से उम्र में तीन साल छोटे थे। अपने-अपने फन में माहिर ये दोनों खेल हस्तियाँ केवल एक बार एक-दूसरे से मिले थे। वह 1935 की बात है जब भारतीय टीम आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के दौरे पर गई थी। तब भारतीय टीम एक मैच के लिए एडिलेड में था और ब्रैडमैन भी वहाँ मैच खेलने के लिए आए थे। ब्रैडमैन और ध्यानचंद दोनों तब एक-दूसरे से मिले थे। ब्रैडमैन ने तब हॉकी के जादूगर का खेल देखने के बाद कहा था कि वे इस तरह से गोल करते हैं, जैसे क्रिकेट में रन बनते हैं। यही नहीं ब्रैडमैन को बाद में जब पता चला कि ध्यानचंद ने इस दौरे में 48 मैच में कुल 201 गोल दागे तो उनकी टिप्पणी थी, यह किसी हॉकी खिलाड़ी ने बनाए या बल्लेबाज ने। ध्यानचंद ने इसके एक साल बाद बर्लिन ओलिम्पिक में हिटलर को भी अपनी हॉकी का क़ायल बना दिया था। उस समय सिर्फ हिटलर ही नहीं, जर्मनी के हॉकी प्रेमियों के दिलोदिमाग पर भी एक ही नाम छाया था और वह था ध्यानचंद।                                          📜 *पुरस्कार एवं सम्मान*

1956 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। उनके जन्मदिन को भारत का राष्ट्रीय खेल दिवस घोषित किया गया है। इसी दिन खेल में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार अर्जुन और द्रोणाचार्य पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। भारतीय ओलम्पिक संघ ने ध्यानचंद को शताब्दी का खिलाड़ी घोषित किया था।

🪔 *निधन*
चौथाई सदी तक विश्व हॉकी जगत् के शिखर पर जादूगर की तरह छाए रहने वाले मेजर ध्यानचंद का 3 दिसम्बर, 1979 को सुबह चार बजकर पच्चीस मिनट पर नई दिल्ली में देहांत हो गया। झाँसी में उनका अंतिम संस्कार किसी घाट पर न होकर उस मैदान पर किया गया, जहाँ वो हॉकी खेला करते थे। अपनी आत्मकथा 'गोल' में उन्होंने लिखा था, "आपको मालूम होना चाहिए कि मैं बहुत साधारण आदमी हूँ" वो साधारण आदमी नहीं थे लेकिन वो इस दुनिया से गए बिल्कुल साधारण आदमी की तरह।

🚼 *दम तोड़ता 'दादा' का सपना*
1979 में दादा ध्यानचंद की कोमा में जाने के बाद मौत हुई, लेकिन जब तक वे होश में रहे, भारतीय हॉकी के प्रति चिंतित रहे। अपने बेटे अशोक से हमेशा कहते थे कि "मेरा यही सपना है कि भारतीय हॉकी एक बार फिर स्वर्णिम युग में पहुँचे। अब मेरे बूढ़े शरीर में भले ही दम नहीं रहा हो, लेकिन मैं भारत की हॉकी को सम्मानजनक स्थिति में देखना चाहता हूँ ताकि खुद को जवान महसूस कर सकूं।"              
           
          🇮🇳 *जयहिंद* 🇮🇳

🌹🙏 *विनम्र अभिवादन* 🙏                                                                                                                                                                                                                                                                  ➖➖➖➖➖➖➖➖➖                  
*🇮🇳 स्वातंत्र्याचा अमृत महोत्सव 🇮🇳*
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       🇮🇳 *गाथा बलिदानाची* 🇮🇳
                 ▬ ❚❂❚❂❚ ▬                  संकलन : सुनिल हटवार ब्रम्हपुरी,          
             चंद्रपूर 9403183828                                                      
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*पदमश्री विठ्ठलराव एकनाथराव विखे पाटील*

*जन्म : 29 आॕगष्ट 1897*
(लोणी, अहमदनगर , महाराष्ट्र, भारत)
*निधन : 27 एप्रिल 1980*

व्यवसाय : उद्योगपती
पुरस्कार : पद्मश्री

विठ्ठलराव एकनाथराव विखे पाटील हे  महाराष्ट्रतील सहकारी साखर कारखानदारीचे आद्य प्रवर्तक. अहमदनगर जिल्ह्यातील लोणी बुद्रुक (ता. श्रीरामपूर) या खेड्यात एका शेतकरी कुटुंबात जन्म. लोणी खुर्दच्या प्राथमिक शाळेत चौथीपर्यंत शिक्षण. नंतर त्यांनी लहान वयातच शेतीला सुरुवात केली. त्याकाळी शेतकऱ्यांच्या जमिनी कर्जबाजारीपणामुळे सावकारांच्या घशात गेल्यामुळे ते कंगाल बनले होते, हे नेमके हेरून त्यांनी व्हवहारबुद्धी, चातुर्य व काटकसरीने शेती केली. १९२३ मध्ये ‘लोणी बुद्रुक सहकारी पतपेढी’ ची स्थापना करून ते सार्वजनिक जीवनातील सहकारी क्षेत्राकडे वळले. त्यांनी जिल्ह्यात सहकारी संस्थांचे जाळे निर्माण केले, तसेच गावातील पाथरवट-वडार मंडळींना एकत्र आणून ‘मजूर सहकारी सोसायटी’ची स्थापना केली.

इंग्रज सरकारने मुंबई कौन्सिलमध्ये ‘तुकडे बंदी आणि तुकडे जोड’ हे विधेयक आणले, या विधेयकामुळे शेतकऱ्यांच्या जमिनीचे तुकडे सावकाऱ्यांच्या घशात जाऊन ते जमिनीला मुकणार होते. अशा वेळी इस्लामपूर येथे शाहू महाराजांनी घेतलेल्या शेतकरी परिषदेला विखे−पाटील नगर जिल्ह्यातील अनेक शेतकऱ्यांसह गेले व तेथे हजारो शेतकऱ्यापुढे भाषण देऊन शेतकऱ्यांच्या प्रश्नांना वाचा फोडली. त्यातूनच त्यांच्या शेतकरी नेतृत्वाचा जन्म झाला.

पुढे महाराष्ट्राच्या एक लाख शेतकऱ्यांनी याच प्रश्नासाठी पुण्याच्या कौन्सिल हॉलला वेढा घातला, त्यात विखे−पाटील आघाडीवर, त्यात विखे−पाटील आघाडीवर होते. त्यांनी शेतकऱ्यांना त्यांच्या दैन्यावस्थेची जाणीव करून देऊन, संघटित होण्याचे व त्यातून व्यक्तिगत व सामुदायिक विकास साधण्याचे महत्त्व पटवून दिले. विखे−पाटील यांच्यावर सत्यशोधक चळवळीचा व डाव्या विचारसरणीचा प्रभाव होता.

प्रसिद्ध अर्थशास्त्रज्ञ धनंजयराव गाडगीळ यांच्या अध्यक्षतेखाली बेलापूर रोड (श्रीरामपूर) येथे १९४५ मध्ये पार पडलेल्या ‘द डेक्कन कॅनॉल्स बागायतदार परिषदेत विखे-पाटील’ यांनी सर्व शेतकऱ्यांनी एकत्र येऊन सहकारी पद्धतीने साखर कारखाना काढण्याचा ठराव मांडला.

या परिषदेचे अध्यक्ष डॉ. धनंजयराव गाडगीळ यांनी व उपस्थित शेतकऱ्यांनी या कारखान्याचे मुख्य प्रवर्तक म्हणूक विखे-पाटील यांच्यावरच जबाबदारी टाकली. त्यांनी ही जबाबदारी पार पाडण्यासाठी १९४५ ते १९५० या कालखंडात अतोनात कष्ट घेऊन, गावोगावी व दारोदारी भटकंती करून भागभांडवल जमविले, तसेच कारखान्याला शासनाकडून मंजूरी मिळविली. कारखान्याच्या उभारणीसाठी त्यांनी केलेल्या भटकंतीकरिता शेतकऱ्यांचा एकही पैसा खर्च केला नाही. ‘परान्न घेणार नाही’ अशी त्यांची प्रतिज्ञा होती, त्यामुळे आपली भाकरी ते नेहमी आपल्या कोटाच्या खिशात बाळगीत असत. विखे−पाटील यांची साखर कारखाना काढण्याची कल्पना त्यावेळी हास्यास्पद ठरविली गेली.

अशा सर्वस्वी प्रतिकूल परिस्थीतीला तोंड देत विखे-पाटील यांनी प्रवरानगर येथे शेतकऱ्यांच्या पहिल्या ‘प्रवरा सहकारी कारखान्या’ची ३१ डिसेंबर १९५० या दिवशी स्थापना केली आणि या कारखान्यातून साखर उत्पादन सुरू झाले. त्यावेळचे मुंबई राज्याचे वित्त व सहकार मंत्री वैकुंठभाई मेहता यांनी या कारखान्यास शासनाची मान्यता मिळवून देऊन सर्वतोपरीने सहकार्य केले. प्रवरानगराचा हा कारखाना आशिया खंडातील सहकारी तत्त्वावरील अग्रगण्य साखर कारखाना मानला जातो.

पहिली अकरा वर्षे विखे−पाटील यांच्या आग्रहामुळेच डॉ. धनंजयराव गाडगीळ कारखान्याचे अध्यक्ष झाले. तर ते स्वतः उपाध्यक्ष म्हणून काम पहात असत. पुढे ते ‘विखे−पाटील प्रवरा सहकारी साखर कारखान्या’चे अध्यक्ष (१९६०) व ‘संगमनेर सहकारी साखर कारखान्या’चे मुख्य प्रवर्तक व अध्यक्ष (१९६६) झाले.

शेतकऱ्यांच्या सहकारी साखर कारखान्यांची योजना विखे−पाटील यांनी यशस्वी रीत्या राबविल्यामुळे भारत सरकारने त्याचा लाभ आणि माहिती भारतातील विविध प्रतिनिधी आणि अभ्यासू शेतकरी यांना व्हावी, म्हणून अखिल भारतीय सहकारी साखर कारखान्यांची पहिली परिषद १९५६ साली प्रवरानगर येथे भरविली.

प्रवरानगरचा सहकारी साखर कारखाना व विखे−पाटील हे भारतातील सहकारी चळवळीतील कार्यकर्त्यांचे प्रेरणास्थान बनले. अशा प्रकारचे आणखी कारखाने उभे राहण्यासाठी विखे−पाटील यांनी अनेक शेतकरी नेत्यांनी प्रोत्साहन दिले. उदा., सांगलीचे वसंतदादा पाटील, वारणानगरचे तात्यासाहेब कोरे, पोहेगावचे गणपतराव ओंताडे, राहुरीचे वाबूराब तनपुरे, अकलूजचे शंकरराव मोहिते, पंचगंगेचे रत्नाप्पा कुंभार, परभणीचे शिवाजीराव देशमुख, इत्यादी. भारताचे पहिले पंतप्रधान पं. जवाहरलाल नेहरू यांनी स्वतः प्रवरानगरला येऊन विखे-पाटील यांच्या कार्याची प्रशंसा केली (१५ मे १९६१).

विखे−पाटील यांनी शेतकऱ्यांना बचतीचे महत्त्वही पटवून दिले. शासनाची अल्पबचत योजना यशस्वी रीत्या राबविल्याबद्दल १९६५ मद्ये भारताचे तत्कालीन अर्थमंत्री टी. टी. कृष्णम्माचारी यांनी खास मानपत्र देऊन गौरविले. त्याचप्रमाणे कुटुंबनियोजनाची योजनाही १९५९ पासून त्यांनी परिसरात राबविली. या योजनेचे फलित म्हणजे, १९७६ साली ऑक्टोंबर महिन्यात प्रवरा हॉस्पिटलमध्ये चार दिवस भरविलेल्या कुटुंबनियोजन शिबिरात ६,२३१ शस्त्रक्रिया यशस्वी रीत्या पूर्ण करण्यात आल्या व त्यातून शस्त्रक्रियांचा जागतिक विक्रम प्रस्थापित झाला.

विखे−पाटील यांनी पुढील सामाजिक. शैक्षणिक संस्थांवर विविध नात्यांनी काम केले : प्रवरा शिक्षणोत्तेजक सहकारी पतपेढीचे संस्थापक व अध्यक्ष (१९५३), अहमदनगर जिल्हा मराठा विद्याप्रसारक समाजाचे अध्यक्ष (१९५३−५६), कोपरगाव व कारेगाव सह. साखर कारख्यान्यांचे सन्मानीय संचालक (१९५४), प्रवरा ग्रामीण शिक्षणसंस्थेचे आद्य प्रवर्तक (१९६४), साखर कामगार हॉस्पिटलचे (श्रीरामपूर) अध्यक्ष (१९६८), अहमदनगर जिल्हा सहकारी बँकेचे संचालक (१९५८) व अध्यक्ष (१९६८), गोदावरी विकास मंडळाचे सदस्य (१९७१) इत्यादी.

कर्मवीर भाऊराव पाटील यांच्या शैक्षणिक कार्याने ते प्रभावित झाले व त्यांनी कर्मवीरांना नगर जिल्ह्यात शैक्षणिक संस्था उभारण्यास पाचारण केले. तसेच सर्वतोपरीने साहाय्य केले. विखे−पाटील हे रयत शिक्षण संस्थेचे संचालक व उपाध्यक्ष (१९७८) होते. ग्रामीण भागातील आरोग्याचे प्रश्न सुटावेत; म्हणून त्यांनी ‘प्रवरा मेडिकल ट्रस्ट’ ची स्थापना (१९७४) करून अत्याधुनिक सुविधा असलेले भव्य इस्पितळ लोणीत सुरू केले. त्यांच्या पश्चात् त्यांनी स्थापन केलेल्या विविध संस्थांच्या माध्यमांतून अनेक शिक्षणसंस्था-उदा., वैद्यकीय, दंत, परिचालिका, अभियांत्रिकी, तंत्रनिकेतन (मुलांचे व मुलींचे), औद्योगिक प्रशिक्षण संस्था, कला अकादमी तसेच गावोगावी अनेक माध्यमिक विद्यालये इ. संस्था उभ्या राहिल्या. त्यांचे चिरंजीव बाळासाहेब विखे−पाटील व नातू राधाकृष्ण विखे-पाटील यांनी समर्थपणे पुढे चालविले आहे.

विखे−पाटील यांनी सहकार, कृषी, औद्योगिक व शैक्षणिक क्षेत्रांत केलेल्या मौलिक कामगिरीबद्दल भारत सरकारने त्यांना १९६१ मध्ये ‘पद्मश्री’ हा किताब दिला, तर पुणे विद्यापीठाने ‘डी. लिट्.’ (१९७८) व राहुरी येथील महात्मा फुले कृषी विद्यापीठाने ‘डॉक्टर ऑफ सायन्स’ (१९७९) या पदव्या प्रदान केल्या. लोणी बुद्रुक येथे त्याचे निधन झाले.
        🇮🇳 *जयहिंद* 🇮🇳
🙏 *विनम्र अभिवादन* 🙏

                                                                                                                                                                                                                                                               ➖➖➖➖➖➖➖➖➖

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